Tuesday 8 March 2016

शनै..शनै....

alka awasthi



टूट चुकी है साख
गहराने को हैं रंग 
दरख्तों के...

सरसों के रौंदे खेतों में 
कब, किसने देखी है !
बसंत की आवक..

कौन चढ़ाता है
सूखे फूलों को
देवालयों, मज़ारों पर..

 भट्ट लाल 
भानु के ताप से
सूख जाती हैं
 नदियां भी..

मैं नहीं हूं सागर
कि हो ..
अंबार..
गुंजाइशों का.....

मैं प्रेम हूं 
बहकर निकल गई
कोरों से...

4 comments:

  1. बहुत खूब

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2277 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. umda rachna ..
    मैं प्रेम हूँ बह कर निकल गयी ....कोरो से
    सच ही कहा

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  4. बहुत सुंदर लि‍खा

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