Monday 7 January 2013

विजन पथ ..




प्रतीक्षा में तुम्हारी
जाने कितने दिव 
नाप डाले सूर्य-शशि  
लौटोगे हे यायावर ?

प्रथम रश्मियों संग 
अधूरा है जो राग 
होगा कभी पूर्ण !

चुक रही है 
हथेलियों में भरी रेत 
समय दौड़ रहा है निर्बाध 
क्या आज भी तुम
रेखाओं  में उलझे हो !

बाहर निकलो 
इस मकड़ जाल से
मैंने सुना है 
बनती-बिगडती हैं 
हाथों  की लकीरें 


बहुप्रतीक्षित है 
भेंट तुमसे ...

साँस चुकने से पहले 
विजन पथ पर
साथ चलोगे न 'मित्र' !