प्रतीक्षा में तुम्हारी
जाने कितने दिव
नाप डाले सूर्य-शशि
लौटोगे हे यायावर ?
प्रथम रश्मियों संग
अधूरा है जो राग
होगा कभी पूर्ण !
चुक रही है
हथेलियों में भरी रेत
समय दौड़ रहा है निर्बाध
क्या आज भी तुम
रेखाओं में उलझे हो !
बाहर निकलो
इस मकड़ जाल से
मैंने सुना है
बनती-बिगडती हैं
हाथों की लकीरें
बहुप्रतीक्षित है
भेंट तुमसे ...
साँस चुकने से पहले
विजन पथ पर
साथ चलोगे न 'मित्र' !