Tuesday 10 October 2017

बेटियों की चहकन....



भोर होते ही 
लगतीं  हैं  चहकने 
जैसे बगीचों में
चहचहाते  पक्षी 
कानो में घोलते हों 
रस मीठा सा ..... 

वो....  जो हरी घास पर 
बिछी थी सुथराई 
उनके पैरों से लिपटकर 
मचलने सी लगी है 

रंभाती गायों के बीच 
उनकी खिलखिलाट 
अधरों को दे ही देती है 
अर्धचन्द्राकार  लकीर .. 

उनकी अल्हड़ शरारतों के बीच
लौट आता है माँ का बचपन

बेटियां होती हैं ... 
चिड़ियों की  चहकन जैसी 

Tuesday 3 October 2017

झरता है घन ....



क्यों पोंछ  देते हो
वेदना के दाग 
झकझोर कर  स्मृतियाँ 
.. प्रात  की रश्मियों से

तमी  के आँचल से  खींच
क्यों बिखरा देते हो
 रंग सिन्दूरी
घुलने लगते हैं राग
विहगों के.. 

कपोलें हटा देती है
पल्लवों के घूंघट
महकता है उपवन.. 


 नित्यप्रति , इसी क्षण
 गूंजने लगता है
 संगीत सा कुछ .. 

मेरे सूखे कोरों से फिर 
घुमड़ -घुमड़ 
झरता है घन.....