घात अघात के मध्य
उर की तप्त व्यथाएं
न जाने कब?
बन जाती हैं
करुण कथाएँ
क्षीण कंठ की
रात के पसरे सन्नाटे में
नींद से कोसों दूर
भक्क लाल आँखों में
जलती रहती हैं स्मृतियाँ
कुछ चुह्चुहाई बूंदों से
सने होते हैं गाल
और आँखों से निरंतर
उठता रहता है धुंआ
भींच लेती हूँ मुट्ठियाँ
देखती हूँ लकीरें हाथों की
जो सहसा धुंधलाती
प्रतीत होती हैं
ठीक रात जैसी
दिखती है तस्वीर
खिचें हैं अनगिनत
आड़े तिरछे हाशिये
शायद..
यादों के निशां
बदल रहे हैं अपनी
दिशा-दशा
नक्षत्रों के नीचे
इस पार
पसीजते हैं पल
उस पार..
सब समझते हैं
कितनी खूबसूरत है ज़िन्दगी ..!