Saturday 8 October 2016

सिसकियों की कतरन..

alka awasthi

कट जाने दो
कतरा -  कतरा
बह जाने दो
नदियां रक्त की
धरा के जर्रे जर्रे में चटखे
सुर्ख लाल रंग


मत पीटो
 दिखावे का ढोल
पढ़ाने, आगे बढ़ाने
हिम वेणू पर बिठाने के
सब्जबाग मत बोओ


 तन कर
अट्टालिकाओं  पर
पीटते हो पुरानी लकीरें
 दूर तक इंगित कर
गिना देते हो चंद नाम
गूंजती है जिनकी धमक
ऊंचे नीले वितानों पर

वो धनी थीं  किस्मत से
बदली जिन्होंने
तकदीर ..
लेकर तलवारें संघर्ष की
माथे पर गोद लिया "विजयी भव"


पर सुनो ..
हर संघर्ष की गाथा
कहलाए विजयश्री
जरुरी तो नहीं...


उसने भी चलाए थे
बरछी, ढाल, कृपाण
 वह ..
जो चिराग थी घर का
जिसकी अस्मत हुई तार-तार
जो आगोश में रात के ऐसा सोई
 कि फिर ना उठी


उस दिन ..
शर्मसार हुए क्या
 वो चंद लोग
जो खो गए
भीड़ में जलाते होंगे
कहीं मोमबत्तियां


तो तुम ही कहो ..
उन सिसकियों की कतरन तक
 खौफ में घुटें
या कोख में कट जाएं


हश्र तो वही है उनका
हो जाती हैं कतरा कतरा
धरा पर चटखता है सुर्ख लाल रंग..

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