Saturday 20 August 2011

हाशिये पर..


अविराम!
घात अघात के मध्य  
उर की तप्त व्यथाएं
न जाने कब?
बन जाती हैं
करुण कथाएँ
क्षीण कंठ की

रात के पसरे सन्नाटे में
नींद से कोसों दूर
भक्क लाल आँखों में
जलती रहती हैं स्मृतियाँ

कुछ चुह्चुहाई बूंदों से
सने होते हैं  गाल
और आँखों से निरंतर
उठता रहता है धुंआ

भींच लेती हूँ मुट्ठियाँ
देखती हूँ लकीरें हाथों की
जो सहसा धुंधलाती 
प्रतीत होती हैं 
ठीक रात जैसी

दिखती है तस्वीर  
खिचें हैं अनगिनत
आड़े तिरछे हाशिये

शायद..
यादों के निशां
बदल रहे हैं अपनी
दिशा-दशा

नक्षत्रों के नीचे
इस पार
पसीजते हैं पल

उस पार..
सब समझते हैं
कितनी खूबसूरत है ज़िन्दगी ..!

5 comments:

  1. अलका जी क्या बात है, उर की व्यथाओं को जितना बांधकर रखो वे उतनी ही साफगोई से फूट पडती हैं। खास तौर पर रात के सन्नाटे में जब दुनिया का कोई अपने आसपास नहीं होता, होता है तो कोई अपना दिल के किसी कोने में। कभी शोध करो और सोचो कि आखिर क्यों पसीज जाते हैं पल उन यादों की तरह।

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  2. दर्द का समंदर - दूर के ढोल सुहावने लगते हैं

    मार्मिक तथा अद्भुत प्रस्तुति

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  3. Bahut hi badhiya prastuti... Aapko pahli baar padha, anand aaya.. Badhai swikar karein...

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