Wednesday 11 May 2011

सुकूं....


दूर तक फैले रेत के समंदर में 
गहरे निशां भी
हवा के झोकों संग
चले जाते हैं दूर ...जाने कहाँ !

अंत और अनंत के
गहरे अंधेरों में
मौन हो रहे हैं पदचिन्ह 
शनैः- शनैः मूक हो रही हूँ  मैं भी

सपनों के घने पेड़ भी
शाख विहीन हो गए हैं
अब नहीं बना पायेगी कोई उम्मीद
 नया घोसला..

मैंने तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं तलाशा
पहाड़ी मैदानों से होकर
रेत के कटीले रेगिस्तानों तक
स्याह हो गए मेरे दिन और रात

और तुम ....
बहते रहे झर झर
इन्हीं आँखों से
बन के आंसू
निकलते रहे , गलते रहे

 क्षितिज के पार आकर जाना
 सुकूं कहाँ  मिलता है !

4 comments:

  1. कविता अच्छी लगी , प्रथम खंड और भी अच्छा लगा और अंतिम भी
    हर उस जगह जहाँ हम सोचतें है कि यहाँ हमें सुकूँ मिलेगा
    परन्तु वहाँ पहुँचने के उपरांत समझ मे आता है कि
    सुकूँ इस जहाँ में नहीं, वो तो हमारे अंदर ही है।
    ग़र हम अपनी आकाँक्षाओं को एक दायरे के अन्दर कायम रखें .....

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  2. bahut hi achhi rachna ... ise khol den taki rachnaaon ka sadupayog main ker sakun

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  3. अच्छा लिखा है। प्रतिबिंब बहुत कुछ कहते है----यशपाल

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  4. apki kavitaye bahut pasand aayi..webpage bhi khubsurti se design kiya hai...nice picture
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