उपवास
ज़िंदगी को अब जिस भी नज़रिए से देखती हूँ
सपाट दिखाई देती है
ना कुछ खोने का ग़म
ना सीने में सुलगती है आह
रेगिस्तान में खड़े ठूँठे दरख़्त की तरह
जिसे..........
ना कभी कभार होने वाली बारिश भिगाती है
ना रेगिस्तान की तपिश जला पाती है
दूर तलक निगाहों में दीखता एक सा मंज़र
खाली खाली सा .........
बस एक रंग में सिमटा ..............
जैसे ब्रम्हांड में शून्य की तरह
सृष्टी के रचयिता की रचित
एकमात्र मैं ..................
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