भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर एक चर्चा के दौरान कवि श्री आशुतोष जी
की ये रचना आपके समक्ष रख रही हूँ ....
बेरुख़ी
मैंने इंसानों को बदलते हुए देखा है
अपनी आँखों से दरख्तों को तडकते देखा है
इस खुदगर्ज़ ज़माने में ............
अपनों को अपनों से .....सिमटते देखा है
जिन शोख अदाओं को
पैमाना समझ कर
पीते रहे ए-दोस्त .........
उन पैमानों को चटकते हुए देखा है
देखता हूँ जब गौर से ..
तो वो दूर बहुत नज़र आते हैं
उनको जीने दो अपनी मर्जी से
हम तो ...अपनी मंजिल पे तरस खाते हैं
और ...........
जिनको कह रहे थे हम अपना वो तो...
परायों से भी बदतर नज़र आते हैं
बदतर नज़र आते हैं ............
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