alka awasthi
टूट चुकी है साख
गहराने को हैं रंग
दरख्तों के...
सरसों के रौंदे खेतों में
कब, किसने देखी है !
बसंत की आवक..
कौन चढ़ाता है
सूखे फूलों को
देवालयों, मज़ारों पर..
भट्ट लाल
भानु के ताप से
सूख जाती हैं
नदियां भी..
मैं नहीं हूं सागर
कि हो ..
अंबार..
गुंजाइशों का.....
मैं प्रेम हूं
बहकर निकल गई
कोरों से...
बहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2277 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
umda rachna ..
ReplyDeleteमैं प्रेम हूँ बह कर निकल गयी ....कोरो से
सच ही कहा
बहुत सुंदर लिखा
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