Monday, 23 September 2013

वेदना...





नयनों में भर तुम्हारी दीठ
लटका लेती हूं पैर
सांझ के उस पार....

वेदना की काई
निकल आती है पोरों से...

बूझ नहीं पाती
प्रात की पहली सुथराई का
यूं झर-झर बहना

पलकों के संपुट खोल
लगाती हूं आवाज कर्कश
सभी वाद विवाद प्रतिवाद
दिखते हैं ..........
उंचे नीले वितान पर

अधर हिलते हैं
मैं समझ लेती हूं
जीवन गति छोड़
चाहता है विश्राम
मेरा ईष्ट......
दूर हो गया मुझसे!


2 comments:

  1. मन की वेदना की सुन्दर प्रस्तुति ।

    मेरी नई रचना :- चलो अवध का धाम

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  2. बहुत मार्मिक ..

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