प्रतीक्षा में तुम्हारी
जाने कितने दिव
नाप डाले सूर्य-शशि
लौटोगे हे यायावर ?
प्रथम रश्मियों संग
अधूरा है जो राग
होगा कभी पूर्ण !
चुक रही है
हथेलियों में भरी रेत
समय दौड़ रहा है निर्बाध
क्या आज भी तुम
रेखाओं में उलझे हो !
बाहर निकलो
इस मकड़ जाल से
मैंने सुना है
बनती-बिगडती हैं
हाथों की लकीरें
बहुप्रतीक्षित है
भेंट तुमसे ...
साँस चुकने से पहले
विजन पथ पर
साथ चलोगे न 'मित्र' !
अलंकृत दीप राग
ReplyDeleteआशीष और शुभकामनाएं
वाह ... बहुत सुंदर
ReplyDeleteकृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता.
ReplyDeleteबाहर निकलो इस मकडजाल से .......उम्दा.....
ReplyDeleteबाहर निकलो इस मकड़जाल से ........ उम्दा......
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