सुनो !
हे यायावर..
निशदिन
स्वर्णिम बेला में
नक्षत्रों के मध्य
दीप्तिमान रहकर
भर-भर अन्जुलियाँ
प्रक्षालित करते हो
वात्सल्य की
गुनगुनी धूप..
गुनगुनी धूप..
अंशुमाली संग..
रथ पर सवार हो
तुमसे ही प्राप्त
तुमसे ही प्राप्त
नेह रश्मियाँ
प्रत्येक प्रत्युष मुझे
कर देतीं हैं भाव विभोर..
प्रति दिव
दिए संस्कारों संग
चलती हूँ धरित्री पर..
गभुआई सुथराई
करती है..
नित्य-प्रति आलिंगन
दूब के बिछौने पर,
झरता रहता है आशीष
सरसराते पत्तों संग..
स्वतः ही
खिलखिलाकर
सरपट दौड़ जाती है
बयार..
ढरकाते हुए स्नेह
उत्ताल ललाट पर
सम्मुख है दीखता
उत्सव हरसिंगार का
बेलौस झूमकर
नेपथ्य में है अटा पड़ा..
तारकों की
उद्दाम विभाओं संग
जीवन पाथेय के
उत्तम, धवल दर्शन
अनुदिन दे देते हो
आज भी
कवच बनकर
मंडराती रहती है
मलयज पवन
चहुँ ओर
हर पल -हर क्षण ..
dridh kavach
ReplyDelete"आज भी कवच बनकर मडराती है चहुँ ओर"
ReplyDeleteरचना के बिम्ब बहुत रोचक है शब्द संयोजन बहुत कमाल का खुबसूरत रचना
ReplyDeleteसार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअपने पूर्वजों का इस प्रकार स्मरण करना हमारे प्रति उनके लगाव को दर्षाता है या फिर उनके प्रति हमारे धर्म को। कुछ भी हो लेकिन यह तो तय है कि जो पूर्वजों का स्मरण करते हैं जीवन में कहीं असफल नहीं होते और हर बाधा को पार कर वे ही असंभव कार्य कर दिखाते हैं। यह सत्य लिखा है कि किसी न किसी रूप में वे हमारी रक्षा भी करते हैं यही हमारी संस्कृति मंे भी है। काफी दिनों बाद आपकी कविता पढ़ने को मिली, शब्दों के चयन और भावों की अभिव्यक्ति के लिए ढेरों बधाई।
ReplyDeleteसन्तोष वर्मा
har line khoobsurat hai.......
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