उर की विह्वलता
Tuesday, 18 January 2011
इंतजार.........
घूँट - घूँट वक़्त को पीते
हम समझते हैं
बदल लिया स्वयं को
समय के अनुरूप...
लेकिन, ऐसा नहीं होता
हम तो बस स्वीकारते हैं
उसे, जो हो रहा है
यदि नहीं
तो अरसे तक निर्निमेष पीड़ा....
इसीलिये
चलते रहना है समय संग
देखो ना
मोह पाश में बंधकर
कितने वहम पाल लिए हैं,
कितनी बार किवाड़ों को
खटखटाकर लौट आयी हूँ
बरसती बूंदों के बीच,
ताकती हूँ आसमान
भीगी पलकें देर तक बतियाती हैं,
अल्हड़ बौछारों से..
सब समय का खेला है मित्र .......
तुम चलो अनवरत,
यदि पूंछे महि तुमसे,
कहाँ हैं वो जोड़े पावों के!
करके अनसुना टाल देना
मत खोलो कपाट...
किन्तु ललाट को रखना उत्ताल,
ताकि मिले यदि कोई मुझे,
तो हर्ष से मैं कह सकूं,
कि, मिहिर से जो प्रदीप्त है,
वो मित्र था मेरा कभी...
फिर भी रहेगा इंतजार,
उस दरवाज़े के खुलने का .....
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