Saturday, 20 November 2010
सन्नाटा
उर की अटल गहराइयों में बसे तुम
सपनों के हिलोरों संग दे जाते हो कुछ
कजरारी आँखों को
भावनाओं की गलियों से विचरते
तुम्हारे मीठे एहसास
दृग के कोरों से
धवल स्वरुप लिए
गिर जाते हैं
टप्प ........
भींची पलकें
अलकों के साए में
श्वेत फाहों से लद जाती हैं
नभ के किंचित अवशेष की मानिंद
संसृति के अगणित तारों के बीच
हर रात
रूह को स्पर्शित करते हैं
ना जाने कितने आवरण
तुम्हारे नेह के
तुम्हारी स्मृतियों के साथ ही
छिटक जाती है
इक और बूँद
तुम्हारी याद की
बस यूं ही मेरा सोचते रहना
लगातार - निर्विकार
पलक- दीवार- व्योम के उस पार .....
भोर में ...
सिन्दूरी अरुणिमा संग
दबा लेती हूँ
कुछ हिचकियाँ
कोशिश रहती है
अक्सर , ये मेरी
आवाज़ से ,
सन्नाटा ना जाग जाये कहीं .......
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बहुत खुबसूरत
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