तुम जैसा ..........
तुम्हारी सादगी जिस तरह
घर कर गयी भीतर तक
फ़लक पर तुम्हें
वैसा पाती हूँ
कैसी डोर है !
तुम तक ..खिंची आती हूँ
बहकी मैं !
जाने क्या तलाशती हूँ .....
महकी पुरवाई हौले से
कहती है, सन्देश तुम्हारा..
क्यों देखती हो तुम मुझे ऐसे !
प्यार , आकर्षण , स्नेह , दोस्ती ...
किस रूप में देखती हो !
मैं अबोध सी ..
ठिठक जाती हूँ
हँस देती हूँ
अनार के दानों सम !
टुक - टुक निहारती तुमको
देखती हूँ तुम्हारी ऊँचाई
तुम्हारी निर्मलता
तुम्हारी सच्चाई
ज़मीं पर फ़ैली !
श्वेत सी परछाई !
चाहती हूँ पाना
तुम्हारी ये गहराई
शायद ........
इसलिए देखती हूँ
मैं तुम्हें ऐसे .....!
महकी पुरवाई हौले से
ReplyDeleteकहती है, सन्देश तुम्हारा..
क्यों देखती हो तुम मुझे ऐसे !
प्यार , आकर्षण , स्नेह , दोस्ती ...
किस रूप में देखती हो !
बेहद उम्दा रचना,सच।
अंतर्मन तक पंहुचती है।