रे मन
कहाँ चाहते हो विचरना
औ सुनो..
ठहरने का ठौर भी कहाँ है ?
इसलिए बाँध लो पाथेय
जिस पथ मैं रुकूँ
तुम चलो..
भींच कर यूं मुठ्ठियाँ
कैद क्या हो कर रहे
विस्मृत कर स्मृतियाँ
बस बढ चलो
जो राह मिले
नेह में यदि मैं गिरूँ
तुम उठो..
सुनो..
क्या चाहते हो खोजना
जो मुस्कराहट के
बीज बोये थे
वो फसल
काट ली है किसी ने
अच्छा हुआ..
वो फलियाँ प़क कर
नासूर बन गयी थी
शूल पथ पर
यदि मैं थकूँ
तुम चलो..
बांध
भावनाओ का
भर गया था
इन मुई पलकों में
आज जम गया
अभी- अभी इसे छूकर गयी है
भावहीन ठंडी बयार
शीत बनकर जिस पथ
मैं जमूं
तुम बहो..
बातें पर्वतों की तरह
खड़ी हो गयी थी जो
चल पड़ी हूँ वहां से
ये व्यथा बनाएगी
इक नया रास्ता
दीप बनकर जिस पथ
मैं बूझूं
तुम जलो..
लीक पर तू मत विचरना
लीक पर तो वो चले
जिनके दुर्बल हों चरण
जो पथ स्वयं से
मैं बुनू
वो तुम चुनो ..
मैं मुसाफिर, तू मुसाफिर
शूल से फिर क्यों डरें
इक ठांव जो हम रुक गए
तो फिर
पथिक ही क्या रहे
इसलिए
बाँध लो पाथेय
जिस पथ मैं रुकूँ
तुम चलो...
दिल को छू गई आपकी भावनाएं अलका जी
ReplyDeleteकुछ श्ब्दों पर आंखें भर आती हैं
ना जाने आपने कैसे रचे होंगे
आप रुकने, गिरने या थकने वाली नहीं
ना ही जमने या बुझने वाली
हां हो यही कि जो पथ स्वयं से आप बुनें
उसी पर अन्य चलें
मुस्कुराहट के बीजों की फसल
कभी खत्म नहीं होती हमेशा लहलहाती है
बस आप जैसा दिल और जज्बा चाहिए
धन्यवाद
BEHTAR KAVITA HAI
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