हुलसते दृगों में
बह रहे थे स्वप्न हर्षिल
वक्त का पहिया चला यूं
सब, मूक हैं निष्प्राण हैं
गंध बनकर जो मलय
महकती थी चहुँ दिशा
रुख बदलकर चल पड़ी
नियति ही बलवान है
पुराने कोटर भी
हो गए हैं रिक्त
जिनमें रहते थे
जोड़े गिलहरियों के
बेला, विदा की
संताप नहीं कोई
समय के चक्र पर
मैं भी हूँ और तुम भी
उठ चली हूँ आज
एक पथ के पथिक से
हो गयी हूँ मौन
उत्थान -पतनाघात से
जीवन इसी का नाम है
रूकती नहीं कभी ये गति
सहज मूंदकर पलकें
जो मिट गया वह जी गया
पंथ पर छोड़ दिए हैं
मैंने कुछ पदचिन्ह
विनाश ही गढ़ता है
सृजन की दास्ताँ...
कविता अनुभव कराती है कि हिंदी की सजीवता अभी भी तरो ताज़ी है. कई बार लगता है की मन में पड़ी गांठो का खुलना अभी बाकी है, कवि का मन जाने क्यों भाग रहा है, बार बार दुखी मन की झलक शब्दों में उतरती दीख पड़ती है, परन्तु साथ में कुछ पंक्तियाँ उसकी उर्जा को प्रतिबिम्बित भी करती है. पढने के बाद बहुत अच्छा लगा.....
ReplyDeletebahut acchi si kavita hai.maine aap ki kush line aap ki orkut mai daali hai . sorry agar ap ko acchi na lage
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
ReplyDeleteयहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके., हो सके तो फालोवर बनकर हमारा हौसला भी बढ़ाएं.
मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.
"जीवन इसी का नाम है
ReplyDeleteरूकती नहीं कभी ये गति
सहज मूंदकर पलकें
जो मिट गया वह जी गया
पंथ पर छोड़ दिए हैं
मैंने कुछ पदचिन्ह
विनाश ही गढ़ता है
सृजन की दास्ताँ..."
सब कुछ जानते और समझते हुए भी जीवन के प्रति सकारात्मक द्रष्टिकोण ही हमें उर्जावान बनाये रखता है. इसी में जीवन की सार्थकता है - अति सुंदर