Friday, 15 October 2010
आशाएं ......
आशाएं ......
कंकरीटों के महल में
कैदी की तरह रहता हूँ
सर पे मज़बूत है छत
अम्बर को तरसता हूँ
रंगीन खिलौनों के सेट
ढेरों रहते हैं बिखरे
उस मटमैली माटी के
ढ़ेलों को ढूंढता हूँ
रात के आँचल में
रहती है चमक उजली
चम् - चम् करते छुटपुट
जुगनूं की सोचता हूँ
ज़िन्दगी की दौड़ में
कुछ खो गए हैं जो
इस भीड़ में बिखरे
उन अपनों को देखता हूँ
सर पे मज़बूत है छत
अम्बर को तरसता हूँ .......
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