Friday 22 August 2014

घरौंदा....

alka awasthi


पलकों के संपुट तले
आंशिया है मेरा
घरौंदा मन का....

चली जाती हूं हर रात
उसे बुहारने
झाड़ने, पोंछने  
सुखद है यह अहसास भी....

सहेजा है
कमरेां  में
मीठी यादों को

तुम्हारी ठिठोली
तुमसे बतियाना
वो गंगा किनारे पहरों बिताना

चुस्कियां चाय की
गलियों में खो जाना
इठलाना- इतराना
तुम संग कुछ गुनगुनाना

हां बस ...
अब यही नियति है मेरी
सोचती हूं
क्यों नहीं बंद हो जाती
ये मुई पलकें
ऐसे ही सही
अहसास तो रहता तुम्हारा......

Friday 8 August 2014

मां...शाश्वत

alka awasthi

चलती हूं मां
लौटूंगी जल्द ही
ध्यान रखना तुम घर का
मेरी चिन्ता में
आधी हो गई थी तुम भी .....

बड़बड़ाती थी मैं
जाने कैसे
रोकने को आंसू
जो थे आमादा
मां से लिपटकर रह जाने को

मां होती तो
नहीं रोक पाती खुद को
गिरा ही देती नमक
जिसे चखकर
नहीं बचता मेरे पास
कहने को कुछ भी

अपने हर कदम पर
देखती रही मुड़़-.मुड. के
अब नहीं दिखेंगी कभी
वो भरी भारी आंखें
और हिलता हुआ हांथ...

उफ् ये तल्ख अहसास
चिपक जाता है मां से

मां........
तुम्हारा न होना
नभ के उड.ने जैसा है
मानो शाश्वत अनिश्चित हुआ......