प्रात के पहर में
अप्रतिम रूप से फैली
अरुणिमा की सिन्दूरी विमायें
करती हैं सर्जना
प्रीत तूलिका की
प्रति, दिन- बरस - युग
झुरमुटों से झांकती
अलसाई पड़ी सुथराई
बहकर बयार संग
गाती राग फाग का
अटा पड़ा है लालित्य
हर, पुष्प-विटप-निकुंज पर
मुकुलित पड़े हैं सब
कचनार-कुमुदनी औ 'कदम्ब'
भिन्न रंगों में रंग गए
खेत-बाग-वन
इक रंग तो मुझ पर भी है
रहेगा युगों तक
नेह-प्रेम -औचित्य का
गहराता जाता है
हर क्षण - पल -पहर
देता है अपरिसीम पुलकित स्नेह
अंतस से करता आलिंगन
गूंजता है चहुं ओर
चटक जैसे अंशुमाली
रंग...
बन हर्षिल प्रभाएं
करता नव्याभिमाएं
भरता पुष्प नवश्वास के
हर शिरा - रोम -व्योम में
देखो ना 'सांवरे'
फाग के इन
लाल-पीले-हरे-नीले
विविध रंगों से
कितना चटक है
तुम्हारी प्रीत का रंग
रहेगा मुझ पर बरसों-बरस
युगान्तरों तक.....