व्यथा कि गांठ .......
तुम्हारे कहे शब्द,वर्ण
अतिगुंजित हैं
आज भी मुझमें
क्या तुम भी अनुभव कर पाते हो
मेरे अलसाये सवर्ण गीतों को
तुम्हारे पुलक अरण्य में
खिलते पुष्पों की
इक कलम
काट ली थी मैंने संभवतः मेरे निकुंज में भी
विराजे बसंत
दूर से निहारती हूँ
तुम्हारी सकुचाई यादों की पगडंडियों को
चलती रहती हूँ उस मोड़ पर
जो नया है मेरे लिए
तुम, जो हो गए थे
कथित दोष पूर्ण
झट से मांग बैठे थे
यादों का हर क्षण
कैसे दे देती तुमको
वो सारी यादें
बन के ठूंठ
कैसे रह पाती
जानते हो ना
ठूंठ पर तो कभी पतझड़ भी नहीं आता
आज भी मुझमें
क्या तुम भी अनुभव कर पाते हो
मेरे अलसाये सवर्ण गीतों को
तुम्हारे पुलक अरण्य में
खिलते पुष्पों की
इक कलम
काट ली थी मैंने संभवतः मेरे निकुंज में भी
विराजे बसंत
दूर से निहारती हूँ
तुम्हारी सकुचाई यादों की पगडंडियों को
चलती रहती हूँ उस मोड़ पर
जो नया है मेरे लिए
तुम, जो हो गए थे
कथित दोष पूर्ण
झट से मांग बैठे थे
यादों का हर क्षण
कैसे दे देती तुमको
वो सारी यादें
बन के ठूंठ
कैसे रह पाती
जानते हो ना
ठूंठ पर तो कभी पतझड़ भी नहीं आता
स्याह रातों में
खुल जाती है व्यथा कि गाँठ
और भरभराकर गिर जातीं हैं
कुछ स्मृतियाँ
अपेक्षित प्रेम की
भक्क लाल आँखों में
जलते रहते हैं पल...प्रतिपल
रोम-रोम प्रेम से पगे
तुम कहीं श्रेष्ठ
तुम्हें रोक पाने में
मैं रही अक्षम....