एक अदद
नन्हीं गौरैय्या
अक्सर........घर की छत से सटे
पेड़ की साख पर
दिनभर, फुदकते दिखती
है ....
इक रोज़ ,
उसकी कारगुज़ारियो को
नज़दीक से देखने को जी चाहा
दौड़ गयी दूर ......
उस मुंडेर तक
देखती हूँ ....
फुर्र फुर्र करती
ले आती है....
फ़ूस का एक टुकड़ा
रख़ देती है ....दो साखों के बीच
इक दूसरे से बाँधती
प्रीत की डोर जैसे .....
कुछ घास और तिनके
ले आती ...
बड़े जतन से
सूरज की बिखरती लालिमा के साथ
साँझ की चादर फैलने तक
करती रहती काम अपना
घर बनाने का यूं
लिए हुए सपना
दिन , हफ्ते और महीना बीत गया ...
इक रोज़ पड़ोस में बच्चों को
देखा चिड़िया से खेलते
अचानक याद हो आया
वो पुराना घोंसला ......
मन में देखने की इच्छा इतनी
की बस ......
जाकर देखती हूँ
बड़ा सुन्दर है छोटा सा घोंसला
पर....
गौरैय्या कहाँ ....?
मालिक बदल गया शायद ....
कुछ देर ठिठक कर सोचती हूँ
कहाँ गयी होगी गौरैय्या ......
नज़रें दौड़कर वापस आ जाती हैं .......
वक़्त था खुद को समझाने का
क्योंकि .............
बड़ा आम हो चला है चलन
किराये के मकां में सर छुपाने का !